प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो क्या है सिद्धांत, कार्यविधि को चित्र द्वारा समझाइए

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो

एक ऐसी युक्ति है जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है। उसे प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो (alternating current generator or dynamo in Hindi) कहते हैं। इसका कार्य सिद्धांत फैराडे के विद्युत चुंबकीय प्रेरण के नियम के अनुसार होता है।

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धांत

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र में मूलतः तार का एक पाश (लूप) होता है। जो चुंबकीय क्षेत्र में घूर्णन करता है। जब इस पाश को चुंबकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है। तो पाश में से होकर गुजरने वाली चुंबकीय फ्लक्स रेखाओं की संख्या में परिवर्तन होता रहता है। जिसके फलस्वरूप पाश में एक विद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। अतः पाश को घुमाने में किया गया कार्य अथवा व्यय यांत्रिक ऊर्जा, पाश में विद्युत ऊर्जा के रूप में प्राप्त होती है। यह प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का सिद्धांत है।

रचना

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो के चार मुख्य भाग होते हैं।
1. आर्मेचर
2. क्षेत्र चुंबक
3. सर्पी वलय
4. ब्रुश

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो
प्रत्यावर्ती धारा जनित्र या डायनेमो

1. आर्मेचर
यह एक आयताकार कुंडली abcd होती है। जिसमें तांबे के तार के अनेकों फेरे होते हैं। इसे आर्मेचर कुंडली कहते हैं। यह चुंबक के दोनों ध्रुवों के बीच में रखी होती है। इस कुंडली को बाह्य शक्ति द्वारा तेजी से कमाया जाता है।

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2. क्षेत्र चुंबक
इसमें एक शक्तिशाली चुंबक होती है। जिसे चित्र में N-S द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इसका कार्य शाक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करना होता है। आर्मेचर कुंडली भी इन्हीं दोनों चुंबकों के बीच में घूमती है।

3. सर्पी वलय
कुंडली पर लिपटे तांबे के तार के दोनों सिरे धातुओं के दो छल्लो से जुड़े रहते हैं। जिन्हें सर्पी वलय कहा जाता है। इन्हें चित्र में R1 व R2 द्वारा निरूपित किया गया है। यह आर्मेचर कुंडली के साथ-साथ उसी अक्ष पर घूमते रहते हैं।

4. ब्रुश
सर्पी वलय सदैव तांबे की बनी दो पत्तियों को स्पर्श करते रहते हैं। इन पत्तियों को ब्रुश कहते हैं। इन्हें चित्र में B1 व B1 द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इनका संबंध उस परिपथ से किया जाता है। जहां विद्युत धारा भेजनी होती है।

प्रत्यावर्ती धारा जनित्र की कार्यविधि

जब आर्मेचर कुंडली abcd को दक्षिणावर्त दिशा में घुमाया जाता है। अर्थात किसी क्षण कुंडली की भुजा ab ऊपर की ओर जाती है। तथा इसके विपरीत कुंडली की भुजा cd नीचे की ओर जाती है। तो कुंडली में से होकर गुजरने वाली चुंबकीय फ्लक्स रेखाओं में परिवर्तन होता रहता है। जिससे कुंडली में एक धारा प्रेरित हो जाती है। इस प्रेरित धारा की दिशा फ्लेमिंग के दाएं हाथ के नियम के अनुसार होगी। अतः बाह्य परिपथ में विद्युत धारा उत्पन्न होने लगती है जो ब्रुश B2 से B1 की ओर वापस जाती है। क्योंकि प्रत्येक आधे चक्कर के बाद बाह्य परिपथ में धारा की दिशा बदल रही है। इसलिए इसे प्रत्यावर्ती धारा कहते हैं।


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