हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का हिंदी निबन्ध और आलोचनात्मक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी एक उच्च कोटि के निबंधकार और सफल आलोचक रहे है और उन्होंने कबीर, तुलसी और सूरदास आदि पर जिस तरह से विद्तापूर्ण आलोचनाएं लिखी है वे हिंदी में इससे पहले किसी ने नही लिखी थी। इनकी समस्त कृतियों पर इनके गहन विचारों और मौलिक चिन्तन की छाप है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म
जन्म | 19 अगस्त 1907 में |
जन्म स्थान | बलिया जिले (उत्तर प्रदेश) में |
मृत्यु | 19 मई 1979 में |
पिता का नाम | श्री अनमोल द्विवेदी |
रचनाएं | सूर साहित्य, हिंदी साहित्य की भूमिका, अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता आदि |
उपन्यास | बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, चारुचंद्र लेख |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गाँव में हुआ था जिसका नाम था दुबे का छपरा। हजारी प्रसाद जी के पिता का नाम अनमोल द्विवेदी था और उनकी माँ का नाम ज्योतिषमति था। बचपन में हजारी प्रसाद द्विवेदी को वैद्यनाथ कहकर पुकारा जाता था। 19 मई 1979 को बीमारी के चलते दिल्ली में इनका देहांत हो गया।
शिक्षा दीक्षा
हजारी प्रसाद द्विवेदी की शुरूआती शिक्षा उनके गाँव में ही हुई थी जहाँ से इन्होने हिंदी और संस्कृत जैसी भाषाओं का अध्ययन किया था। इसके बाद इन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अपनी आगे की परीक्षा पास करके 1929 में इंटरमीडिएट और संस्कृत साहित्य में शास्त्री की उपाधि ली थी। आचार्य जी की पत्नी का नाम भगवती देवी था। साल 1930 में हजारी प्रसाद जी ने ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि ली थी जिसके बाद इनका नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जाना जाने लगा। 1972 से जिन्दगी भर के लिए उतर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ के उपाध्यक्ष पद पर बने रहे।
साहित्यिक परिचय
यहाँ उन्होंने संस्कृत और हिंदी में पढ़ाया, और शोध और रचनात्मक लेखन में लगे रहे। वे दो दशकों तक शांतिनिकेतन में रहे। उन्होंने हिंदी भवन की स्थापना में मदद की और कई वर्षों तक इसके प्रमुख रहे। शांतिनिकेतन में अपने प्रवास के दौरान, वह रवींद्रनाथ टैगोर और बंगाली साहित्य के अन्य प्रमुख व्यक्तियों के निकट संपर्क में आए। वह बंगाली की सूक्ष्मता, नंदलाल बोस की सौंदर्य संबंधी संवेदनाओं, क्षितिमोहन सेन की जड़ों की खोज और गुरुदयाल मलिक के कोमल लेकिन भेदी हास्य को आत्मसात करने आए थे। ये प्रभाव उनके बाद के लेखन में स्पष्ट हैं। उन्होंने 1950 में शांतिनिकेतन छोड़ दिया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिंदी विभाग में रीडर बन गए, जहां डॉ। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा प्रोफेसर और विभाग के प्रमुख थे। द्विवेदी जी ने वहां 1960 तक सेवा की। इस पद पर रहते हुए उन्हें 1955 में भारत सरकार द्वारा स्थापित प्रथम राजभाषा आयोग का सदस्य भी नियुक्त किया गया।
हजारी प्रसाद जी शांतिनिकेतन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय आदि संस्थाओं में हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे थे। इसके आलावा उत्तर प्रदेश की हिंदी ग्रन्थ अकादमी के भी अध्यक्ष रहे थे और आधुनिक युग के गद्यकारो में इनका महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है।
आचार्य हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार तो थे ही साथ वे हिंदी, बांग्ला, संस्कृत और अंग्रेजी जैसी भाषाओं के विद्वान भी माने जाते थे। इसी वजह से साल 1949 में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को लखनऊ विश्वविद्यालय ने डी लिट् की उपाधि से सम्मानित किया था। 1957 में भारत सरकार द्वारा आचार्य जी को पद्म भूषण से भी नवाजा गया था। 1973 में इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था।
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हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचनाएँ
आचार्य जी ने अनगिनत रचनाएं लिखी है जिसमे से उनके निबन्ध संग्रह में अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, विचार प्रवाह, विचार और वितर्क, गतिशील चिन्तन, विष के दंत, साहित्य सहचर और आलोक पर्व आदि शामिल है। बाण भट्ट की आत्मकथा, चारू चन्द्र लेख, पुननर्वा, अनामदास का पौधा उनके उपन्यास है। सूर साहित्य, हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर, हिंदी साहित्य का आदिकाल, आधुनिक हिंदी साहित्य पर विचार, नाथ सम्प्रदाय, साहित्य का मर्म, साहित्य सहचर, लालित्य तत्व, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, सहज साधना, मृत्युंजय रविन्द्र, हिंदी साहित्य का उद्धव और विकास आदि आचार्य जी के आलोचनात्मक है।
भाषा शैली
हजारी जी की भाषा सरल थी और वे भाषा के प्रकांड पंडित थे। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ साथ आचार्य जी ने निबन्धों में उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी और ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी किया था। इसके आलावा उन्होंने मुहावरेदार भाषा का प्रयोग भी किया था। आचार्य हजारी प्रसाद जी ने गवेषणात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक, हास्य व्यंग्यात्मक और उद्दरण शैली का प्रयोग किया था।
उपसंहार
आचार्य हजारी प्रसाद ने हिंदी भाषा का वृहत एतिहासिक व्याकरण के नाम से 4 खंडो में विशाल व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। जिसकी पाण्डुलिपि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को सौंप दी गयी थी लेकिन बाद में इसका वहां से प्रकाशन नही हुआ और उनकी पांडूलिपियाँ जैसे कहीं गायब हो कर रह गयी। हालांकि उनके बेटे मुकुंद द्विवेदी को उक्त वृहत ग्रन्थ के पहले खंड की प्र्तिकोपी मिल गयी और साल 2011 में इस विशाल ग्रन्थ का पहला खंड हिंदी भाषा का वृहत एतिहासिक व्याकरण के नाम से प्रकाशित हुआ था। इसी ग्रन्थ को यथावत ग्रन्थावली के 12 खंडो में शामिल किया गया और अब आचार्य हजारी प्रसाद जी का 12 खंडो में ग्रन्थावली का प्रकाशन हो रहा है।